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परिवर्तन
किए गए।
अंग्रेजी
राज के भारत
में जमने के
बाद पहली बार
विधायी
निकायों में
गैर-सरकारी
लोगों के
रखने की बात
को माना गया। भारतीय
राष्ट्रीय
कांग्रेस की
स्थापना 1885
में हुई।
कांग्रेस ने
शुरू से ही
अपने सार्वजनिक
जीवन का मुख्य
आधार यह
बनाया कि देश
में धीरे
धीरे
प्रतिनिधि
संस्थाएं
बनें। कांग्रेस
का विचार था
कौंसिल में
सुधार से ही
दूसरी सभी व्यवस्थाओं
में सुधार हो
सकता है।
ब्रिटिश
संसद ने ‘विधान
परिषदों में
भारत की जनता
को वास्तव
में
प्रतिनिधित्व
देने’ के
लिए इंडियन
कौंसिल्ज
अधिनियम 1892 को
स्वीकार
किया। इसे
कांग्रेस की
विजय माना
गया। कांग्रेस
ने जो सतत
अभियान
चलाया उसके
कारण इस अधिनियम
में कई सुधार
हुए। 1919
में सुधार
अधिनियम और
उसके अधीन कई
नियम बनाए
गए। जिनके
कारण केंद्र
में, भारतीय
विधान परिषद
के स्थान पर
द्विसदनीय
विधानमंडल
बनाया गया। जिसमें
एक थी राज्य
परिषद और
दूसरा थी
विधान सभा।
प्रत्येक
सदन में
अधिकांश
सदस्यों का
चुनाव होता
था। पहली
विधान सभा
वर्ष 1921 में
गठित हुई थी।
उसके कुल 145
सदस्य थे। 104
निर्वाचित, 26
सरकारी सदस्य
और 15 मनोनीत
गैर-सरकारी
सदस्य। पहली
बार विधान
बनाने में और
सरकार की
नीतियों को
प्रभावित
करने में
जन-प्रतिनिधियों
की आवाज सुनी
गई। इसने देश
के राजनीतिक
भविष्य की
दिशा तय करने
में भी महान
भूमिका अदा
की। 1923
में, देशबंधु
चितरंजन दास
और पंडित
मोतीलाल नेहरू
ने स्वराज
पार्टी
बनाई। इसकी
नीति थी कि
चुनाव लड़ें
और व्यवस्था
को बदलें। वे
सोचते थे कि ‘शत्रु के
कैंप’ में
घुसकर व्यवस्था
को तोड़ने के
लिए परिषदों
में स्थान
बनाया जाए। स्वराज
पार्टी को 1923 के
चुनावों में
बहुत सफलता मिली।
स्वराज
पार्टी ने 145 स्थानों
में से 45 स्थान
जीते।
पार्टी
केंद्रीय
विधानमंडल
में |